Atmanirikshan ही हैं सफलता की कुंजी, Success matra is Introspection, You reap what you sow.
स्वामी विवेकानंद द्वारा कथित ये वाक्य व्यक्ति को यह बताने के लिए काफी हैं, कि वह जो कुछ भी हैं और जो कुछ भी आगे होने या बनने वाला हैं उसमें किसी का भी दोष नहीं हैं, भगवान का भी नहीं, व्यक्ति अपने भविष्य का स्वयं निर्माता हैं।
आत्मनिरीक्षण(Introspection) क्या है? आत्मनिरीक्षण करने से लाभ क्या है? ‘आत्म’ का अर्थ होता है खुद अपने आप का, स्वयं का, अपने मन का, बुद्धि का, इंद्रिओ का, विचारो का, चेष्टाओं का, क्रियाकलापों का, अपने संस्कारो का’निरिक्षण’ करना अर्थात् ‘नितराम इक्षणम्’ देखना।
स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं
हमें यह जान लेना चाहिए कि हम तब तक कुछ नहीं बन सकते, जब तक हम स्वयं ही उसके लिए तैयार न हो यहाँ तक कि जब तक शरीर की तैयारी न हो, कोई रोग भी पास नहीं फटक सकता।
रोग का आगमन केवल कीटाणुओं पर ही निर्भर नहीं करता, अपितु शरीर में उनके लिए विद्यमान अनुकूलता पर भी निर्भर करता हैं, हम जिसके योग्य हैं, वही हमें मिलता हैं। हम अपना घमण्ड छोड़े और इस बात को समझ ले कि अकारण दुःख कभी नहीं मिलता। कोई आघात बिना उसके पात्र बने नहीं लगता, कोई भी बुराई ऐसी नहीं थी, जिसके लिए मैंने अपने हाथो रास्ता तैयार न किया हो, यह हमें शीघ्र समझ लेना चाहिए।
अपना विश्लेषण करो तो तुम्हे पता लग जाएगा कि तुम्हे प्रत्येक आघात इसलिए मिला क्योकि तुमने स्वयं को उसके लिए अपने को तैयार किया, आधा कार्य तुमने किये, शेष आधा बाहरी जगत ने पूरा कर दिया। इस तरह तुम्हे आघात मिला। यह हानिरहित होने पर हम विन्रम हो सकेंगे, साथ ही इस आत्मविश्लेषण में से आशा का स्वर भी सुनाई देगा।
बाह्य जगत पर भले ही मेरा कोई वश न चलता हो, किन्तु अपने आतंरिक जगत पर, जो मेरे अत्यंत निकट हैं, मेरे अन्दर ही हैं, तो मेरा नियंत्रण चल सकता हैं यदि किसी असफलता के लिए इन दोनों का संयोग होना आवश्यक हैं, यदि मुझे आघात लगाने के लिए दोनों का मिलन होना अनिवार्य हैं तो मैं अपने अधिकार के जगत को इस कार्य में योग नहीं होने दूंगा, तब भला आघात क्यों आकर लग सकेगा। यदि मैं सच्चा आत्मनियंत्रण पा लूँ तो मुझे आघात कभी नहीं लगेगा।
अतएव, अपनी भूलो के लिए किसी को दोष मत दो, अपने पैरो पर खड़े होओ, और सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर ले लो। कहो यह विपदा जिसे मैं झेल रहा हूँ मेरी अपनी करनी का फल हैं और इसी से यह सिद्ध हैं कि इसे मैं ही दूर करूँगा जिसकी रचना मैंने की, उसका विनाश मैं कभी नहीं कर पाऊंगा।
अत: उतिष्ठ, निर्भीक बनो, समर्थ बनो सम्पूर्ण उतरदायित्व अपने कंधो पर संभालो और समझ लो कि तुम ही अपने भाग्यविधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता तुम्हे चाहिए, वह सब तुम्हारे अन्दर ही हैं अत: अपना भविष्य स्वयं बनाओ, मृत अतीत को दफना दो, अनंत भविष्य तुम्हारे सामने हैं। सैदव स्मरण रखो कि प्रत्येक शब्द, विचार और कृति तुम्हारे भाग्य का निर्माण करती हैं जिस पारकर बुरे कर्म और विचार व्याघ्र के संमान तुम्हारे ऊपर झपटने को तैयार हैं, उसी प्रकार एक आशा कि किरण भी हैं कि अच्छे कर्म और विचार सहस्त्रो देवदूतो की शक्ति से तुम्हारी सदा-सर्वदा रक्षा करने को भी तत्पर हैं।
हम भले ही अपने इन्द्रिय-सुख के लिए अनेको साधनों को जमा करते रहे, किन्तु उनमें से केवल वही हमारा हैं जिसे हमने अर्जित किया हैं, एक मुर्ख संसार की समस्त किताबे खरीद डाले और वे सब उसके पुस्तकालय में सजी रहे, किन्तु वह उनमें से केवल उतनी ही पढ़ पायेगा, जितने का वह अधिकारी हैं और यह अधिकार कर्म द्वारा उत्पन्न होता हैं।
हमारा कर्म निर्णय करता हैं कि हमारा कितना अधिकार हैं और हम कितना आत्मसात कर सकते हैं स्वनिर्माण की शक्ति हमारे पास हैं। हम आज जो कुछ हैं यदि हमारे पिछले कारणों का परिणाम हैं तो निश्चित तर्क निकलता हैं कि जो हम भविष्य में कुछ बनना चाहते हैं, वह हमारे वर्तमान के कर्मो का परिणाम होगा, अत: हमें विचार करना चाहिए कि हम कैसे कर्म करें।
हम रेशम के कीड़ो के तुल्य हैं हम अपनी देह में से ही धागा कातते हैं और अपने की चारो ओर एक कोष बना लेते हैं और फिर कुछ समय पश्चात उसके अन्दर बंदी हो जाते हैं, किन्तु यह सदा नहीं रहेगा, उस कोश के भीतर रहकर हम अध्यात्मिक साक्षात्कार कर लेंगे और तितली के सामान मुक्त होकर बाहर निकल आयेंगे। कर्म का ताना बाना सबने अपने चारो और पूरा कर लिया हैं अज्ञानतावश हम समझते हैं कि हम बंधन में पड़े हैं और तब सहायता के लिए चीखते-पुकारते हैं। किन्तु सहायता बाहर से नहीं आती वह हमारे अन्दर से ही आएगी, चाहे तुम विश्व के समस्त देवताओं का नाम लेकर चिल्लाओ, पुकारो मैं भी वर्षो तक चिल्लाया, अंत में मैंने पाया कि मुझे सहायता मिली किन्तु वह मेरे ही अन्दर से आई। जो कुछ मैंने भूले की थी, उनका मुझे निराकरण करना पड़ा, यही एकमेव मार्ग हैं, मुझे उस जाल को काटना पड़ा, जो मैंने अपने चारो ओर बुन लिया था और उसे काटने की शक्ति अपने अन्दर ही विधमान हैं।
मैं यह विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि मेरे विगत जीवन की एक भी अच्छी या बुरी कामना व्यर्थ नहीं गई और आज मैं जो कुछ भी हूँ, अपने सम्पूर्ण अतीत (भले या बुरे) का ही परिणाम हूँ। मैंने जीवन में अनेक भूले की हैं, किन्तु ध्यान दो, मुझे निश्चय हैं कि उनमें से प्रतेयक भूल को किये बिना मैं वह नहीं बन सकता था, जो आज हूँ, और इसलिए मुझे पूर्ण संतोष हैं कि मैंने वो भूले की मेरा कहने या यह अर्थ कदापि नहीं हैं कि तुम घर वापस जानबुझ कर गलतियाँ करना शुरू कर दो, मेरे कथन का यह गलत अर्थ मत लगाओ किन्तु जो भूले तुमसे हो चुकी हैं, उनके लिए खिन्न मत होओ। स्मरण रखो की अंत में सब कुछ ठीक हो जाएगा इसके अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता क्योकि हमारी प्रक्रति ही शुद्ध-बुध हैं और वह प्रकर्ति नष्ट नहीं की जा सकती हमारी मूल प्रकति सदा वही बनी रहती हैं।
यदि कोई मनुष्य लगातार अशुभ बाते सुन, अशुभ चिंतन करें, अशुभ कर्म करें तो उसके अन्तकरण बुरे संस्कार से मलिन हो जाएगा।
उसी प्रकार यदि कोई मनुष्य शुभ चिंतन करता हैं, शुभ कर्म करता हैं, तो उसके संस्कारों का संचय शुभ होगा ये शुभ संस्कार ठीक उसी प्रकार उसे उसकी इच्छा के विपरीत भी सत्कर्मो की ओर प्रवर्त करेंगे। जब मनुष्य अत्यधिक शुभ कर्म एवम शुभ चिंतन कर चूका होता हैं, तो उसमें अपनी इच्छा के विपरीत भी शुभ कर्म करने की अप्रतिहत प्रवर्ती उत्पन्न होती हैं।
हम कोई मनुष्य पियानो पर कोई धुन बजाना सीखता हैं तो प्रारंभ में वह प्रत्येक परदे पर अपनी ऊँगली समझ समझ कर रखता हैं यह प्रक्रिया तब तक चलता हैं, जब तक कि उंगलियों का चलना उसका स्वाभाव न बन जाएँ बाद में वह उस धुन को प्रत्येक पर्दे की ओर ध्यान दिए बिना ही सरलतापूर्वक बजा लेता हैं इसी प्रकार हम अपने बारें में भी देख सकते हैं कि हमारी वर्तमान प्रवर्तिया हमारे पिछले विचारपूर्वक किये गए कर्मो का ही परिणाम हैं।
मानव स्वभाव की कमजोरी के कारण उसमें कुछ न कुछ दोष, बुराइयाँ आदि अपना घर बनाये रहती हैं। ईश्वर ने विचार करने की शक्ति, विवेक की शक्ति केवल मनुष्य प्रजाति में ही दी हैं इसलिए इन्हें(दोषों और बुराइयों को) स्वच्छन्दतापूर्वक अपने में पनपने देना मनुष्य के लिए बहुत घातक सिद्ध होता है। अब आप स्वयं को परख लो, आप अपने साथ क्या करना चाहते हो।
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