खुद से दूरियां बढ़ी और खुद का चेहरा नहीं देखा
एक अरसा हुआ मैंने आइना नहीं देखा
खुद को कुछ तरह सौंप दिया मैंने
इस कायनात में कुछ उसके सिवा नहीं देखा
मेरे हर रोज के रास्ते में पड़ता है एक मंदिर
मैंने मंदिर तो देखा लेकिन कहीं देवता नहीं देखा
कोई गर कुछ मांगे तो दे दिया करो दोस्त
हमेशा हर किसी का वक़्त एक जैसा नहीं देखा
तुम, मैं और ये सारी दुनिया सब झूठ है,माया है,
एक हंसते हुए इंसान को भी दिल से हंसता नहीं देखा.
तुम रोक लो अपने बहते हुए आंसू को
यूं हर किसी के लिए किसी को रोता नहीं देखा
देखे मैंने हजारों तरह के लोग इस दुनिया में
“राज”लेकिन अब तक कोई तुम सा नहीं देखा
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बैंगनी रंग के पर्दे से
झांक कर लड़ियां देखता हूं,
बारिश की बूंदों की,
मेरा मन करता है भींग जाऊं
जैसे पहले भींगा करता था,
लेकिन अब मन को संभालना सीख गया गया हूं।
सिर्फ देखता हूं,
बारिश को
Brightness कम रहता है दिन का,
और सारा मौसम dark mode में होता है,
और पसंद भी है dark mode।
Dark color की चाय पीता हूं,
मुझे बारिश में चाय पीना पसंद है,
क्यूं मुझे बारिश में चाय
और चाय के साथ बारिश याद आती है।
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मैं सवाल भी खुद हूं
और जवाब भी खुद हूं
मैं दिल की बेचैनी भी खुद हूं
मैं आंखों का ख्वाब भी खुद हूं।
मैं परेशान भी खुद से हूं
मैं परेशानी की वजह भी खुद हूं
मैं जज भी खुद हूं
और मौत की सजा भी खुद हूं।
मैं तुमको कुछ नहीं कह रहा
मैंने सुना भी खुद से हूं
और कह भी खुद से कह रहा हूं
मैं तूफानों का निर्माता भी खुद ही हूं
और छुप कर खुद में ही रह रहा हूं
मैं अपने पैरों की बेड़ियां भी खुद हूं
मैं अपने उड़ानों की लड़ियां भी खुद हूं
मुझे प्यार भी खुद से था
मैंने धोखा भी खुद से खाया है
अब मुझसे मत पूछो
मैंने #KYAKHOYAKYAPAYA है
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सोचता हूं फिर से ग़ज़ल लिखूं
उलझन में हूं, आज लिखूं या कल लिखूं.
तुम बदल गए, मैं बदल गया
इस वक़्त को थोड़ा बदल लिखूं
वह लड़की नूर थी, नूरानी थी
उसके बदन को एक नूरमहल लिखूं
आओ यारो नए किस्से बुने हम
तुम साथ हो गर ज़िन्दगी मुकम्मल लिखूं
ये कुदरत, ये नाजारे सब फीके है
इस आसमान को तेरा आंचल लिखूं
कितने समझदार हो गए है सब वक़्त के साथ
अब “राज” को “राज” लिखूं या पागल लिखूं
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जो मिला उसी के होकर रह गए
जहां गए वहीं के हो कर रह गए
ये वक़्त है, नदी सरीखा सुना था मैंने
इस वक़्त के बहाव में हम भी बह गए
शहर बढ़ने लगा, इमारतें बनने लगी
यादों से भरा पड़ा कई मकान ढह गए
टूट कर जुडती नहीं प्रीत का डोर
सदियों पहले रहीम जी कह गए
कुछ मुसाफिर ठहरे थे एक दो पहर
रात बीतते ही वह सब सुबह गए
आंखों में उसके ख्वाबों का समंदर था
मेरे साथ साथ उसके सपने भी अधूरे रह गए
किसी से वफा की उम्मीद कर ना पाएगा “राज”
वक़्त आने पर कुछ लोग बदल इस तरह गए
– राज