Hindi Kahani, Most Inspirational & Motivational Hindi Story, Kushi ka Khel, The winner Story
एक सच्चा गुरु वह नहीं हैं जो व्यक्ति की कमजोरी और दिव्यांगता को बार-बार इंगित करके उसे डराकर वह कार्य नहीं करने दे बल्कि उसी कमजोरी को ढाल बनाकर उसमें आत्मविश्वास भरकर विजेता Winner बना दे, आइये पढ़ते हैं एक कहानी
“क्या चाहिए मुझसे?” गुरु ने उस बच्चे से पूछा।
उस बच्चे ने थोडा खांस कर गला साफ किया हिम्मत जुटाई और कहा, “मैं आपसे कुश्ती सीखना चाहता हूँ।
एक हाथ नहीं हैं और कुश्ती लड़नी हैं? अजीब बात हैं, पागल हो गया क्या।
“अच्छा क्यों?”
“स्कूल में बाकी लड़के चिड़ाते हैं मुझे और मेरी छोटी बहन को। “टुंडा” कहते हैं मुझे। हर किसी की दया भरी नजर ने मेरा जीना हराम कर दिया हैं, घृणा आने लगी हैं अपने आप पर, गुरुजी। मुझे अपनी हिम्मत और दम पर जीना हैं। किसी की दया दृष्टि नहीं चाहिए। मुझे खुद की और परिवार की रक्षा भी करनी आनी चाहिए।”
“अच्छी बात हैं परन्तु अब मैं बूढ़ा हो चुका हूं और किसी को नहीं सिखाता, तुझे किसने भेजा मेरे पास?”
“मैं कई शिक्षकों के पास गया। कोई भी मुझे सिखाने को तैयार नहीं। एक बड़े शिक्षक ने आपका नाम सुझाया। तुझे वो ही सीखा सकते हैं क्योंकि उनके पास समय ही समय हैं और कोई सीखाने वाला नहीं मिलेगा तुझे, ऐसा बोले।”
वो अहंकार से भरा जवाब किसने दिया होगा ये गुरूजी समझ गए। ऐसे गुरुर वाले लोगो की वजह से ही खल प्रवृत्ति के लोग इस खेल में आ गए ये बात गुरु अच्छे से जानते थे।
“ठीक हैं। कल सुबह सूर्योदय से पहले अखाड़े में पहुंच जाना और हाँ याद रखना मुझ से सीखना आसान नहीं हैं ये पहले हैं बोल देता हूं। कुश्ती एक जानलेवा खेल हैं। इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए ही करना।
मैं जो सिखाऊ उस पर पूरा पूरा विश्वास रखना और इस खेल का नशा भी चढ़ जाता हैं आदमी को। इसलिए सिर-दिमाग भी ठंडा रखना। समझा?”
“जी गुरूजी। समझ गया। आपकी हर बात का निष्ठा से पालन करूंगा। मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। “मन की मुराद पूरी हो जाने के आंसू उस बच्चे की आंखो में छलक आएं। उसने ख़ुशी से गुरु के पांव छू कर आशीष लिया।
“एक ही बच्चे को सीखना गुरूजी ने शुरू किया। मैदान तैयार किया, मिट्टी में हाथ मारा, मुगदुल से धूल झटकायी और इस एक हाथ के बच्चे को कैसे सीखाना हैं यहीं सोचते-सोचते गुरूजी की आंख लग गई।
एक ही दांव गुरूजी ने उसे सिखाया और रोज़ उसकी ही Practice बच्चे से करवाते रहे। छह महीने तक हर रोज बस एक ही दांव, बच्चे को समझ नहीं आ रहा, आखिर गुरूजी ऐसा क्यों कर रहे हैं, पूछने की हिम्मत नहीं थी परन्तु एक दिन बच्चे ने गुरूजी के जन्मदिन पर पांव दबाते हुए हौले से बात को छेड़ ही दिया।
“गुरुजी, छह महीने हो गए, इस दांव की बारीकियां मैं अच्छे से समझ गया हूं और कुछ नए दांव पेंच भी सिखाइए ना।”
गुरूजी वहां से उठ के चल दिए। इस बात से बच्चा परेशान हो गया कि उसने गुरु को नाराज़ कर दिया।
फिर भी गुरूजी के बात पर भरोसा करके बच्चा सीखते रहा। फिर उसने कभी नहीं पूछा कि और कुछ सीखना हैं या नहीं।
कुछ समय बाद पास के गांव में कुश्ती की प्रतियोगिता आयोजित की गई। बड़े बड़े इनाम रखे गए थे विजेता के लिए। हरेक अखाड़े के अच्छे चुने हुए पहलवान प्रतियोगिता में भाग लेने आए। गुरूजी ने बच्चे को बुलाया। “कल सुबह बैल जोत कर रखना गाड़ी में। पास के गांव जाना हैं कल सुबह कुश्ती लड़नी हैं तुझे।”
कुश्ती शुरू हुई, पहली दो कुश्ती के मुकाबले इस बिना हाथ के बच्चे ने चुटकियो में जीत लिए। जिस घोड़े के आखिरी आने की उम्मीद हो और वो रेस जीत जाए तो रंग उतरता ही हैं वैसा सारे विरोधी उस्तादों का मुंह उतर गया। देखने वाले लोग अचरज में पड़ गए। बिना हाथ का बच्चा कुश्ती में जीत ही कैसे सकता हैं? किसने सिखाया हैं इसे?”
परन्तु अब तीसरे कुश्ती में सामने वाला खिलाड़ी नौसिखियां नहीं था। पुराना जांबाज़ खिलाड़ी। परन्तु अपने साफ सुथरे हथकंडों से और दांव का सही तोड़ देने से यह कुश्ती भी बच्चा जीत गया।
इससे बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ भी गया। पूरा मैंदान भी अब उसके साथ हो गया था। मैं भी जीत सकता हूं ये भावना उसे अन्दर से मजबूत बना रही थी।
देखते ही देखते वो खेल की अंतिम बाज़ी तक पहुंच गया।
जिस अखाड़े वाले ने मज़ाक बनाकर उस बच्चे को इस बूढ़े गुरूजी के पास भेजा था, उस अहंकारी पहलवान का चेला ही इस बच्चे का आखिरी कुश्ती में प्रतिस्पर्धी था।
ये पहलवान सरीखे उम्र का होने के बावजूद शक्ति और अनुभव से इस बच्चे से श्रेष्ठ प्रतीत होता था। कई मैंदान मार लिए थे उसने। इस बच्चे को तो वो मिनटों में चित कर देगा यह स्पष्ट था। पंचों ने राय-मशवरा किया।
“ये कुश्ती करवाना सही नहीं होगा। आखिर कुश्ती बराबरी वालो में होती हैं। ये कुश्ती का मुकाबला मानवता और समानता के अनुसार रद्द किया जाता हैं। पुरस्कार दोनों में बराबरी से बांटा जाएगा। “पंचों ने अपना मंतव्य सबके सामने प्रकट किया।
“मैं इस कल के छोकरे, टुंडे से कई ज्यादा अनुभवी हूं और ताकतवर भी। मैं ही ये कुश्ती जीतूंगा ये बात आप सभी भी जानते हैं। तो फिर इस कुश्ती का विजेता मुझे ही बनाया जाए।” वह प्रतिस्पर्धी अहंकार में बोला।
“मैं नया हूं और बड़े भैया(प्रतिस्पर्धी) से अनुभव में छोटा भी। मेरे गुरूजी ने मुझे ईमानदारी से खेलना भी सिखाया हैं। बिना खेले जीत जाना मेरे गुरूजी का अपमान ही होगा। मुझे खेल कर मेरे हक का जो हैं उसे दे दीजिए। मुझे ये भीख मुझे नहीं चाहिये।” उस बांके जवान की स्वाभिमान भरी बात सुन कर लोगो ने तालियों की बौछार कर दी।
ऐसी बाते सुनने में तो अच्छी लगती हैं पर काफी नुकसानदेय होती हैं। इन बातो से और जनता की राय से पंच हतोत्साहित हो गए। कुछ कम ज्यादा ही गया तो? पहले ही एक हाथ खो चुका हैं अपना और कुछ नुकसान ना हो जाए? मूर्ख कहीं का, सभी ने मन ही मन सोचा।
आखिकार लड़ाई शुरू हुई।
और सभी उपस्थित लोग अचंभित ही रह गए। सफाई से किए हुए वार और मौके की तलाश में बच्चे ने फेंका हुआ दांव उस बलाढ्य प्रतिस्पर्धी को झेलते तक नहीं बना। वो मैंदान के बाहर औंधे मुंह पड़ा था। कम से कम परिश्रम में उस नैसीखिए प्रतिभागी ने उस पुराने महारथी तक को धूल चटा दी।
मैदान(अखाड़े) में पहुंच कर बच्चे ने अपना मैडल निकाल के गुरूजी के चरणों में रख दिया। अपना सिर गुरूजी के चरणों की धूल माथे लगा कर गुरूजी को प्रणाम किया।
“गुरूजी, एक बात पूछना चाहता हूँ।”
“पूछं क्या, क्या पूछना चाहता हैं?”
“मुझे सिर्फ एक ही दांव आता था फिर भी मैं कैसे जीत गया?”
“तू दो दांव सीख चुका था, बच्चे, इसलिए जीता”
“कौन से दो दांव गुरूजी?”
पहली बात, तू ये दांव इतनी अच्छी तरह से सीख चुका था और उसमे गलती होने तक की गुंजाइश ही नहीं थी। तुझे नींद में भी लड़ाता तब भी तू इस दांव में गलती नहीं करता। तुझे ये दांव आता हैं ये बात तेरा प्रतिद्वंदी अच्छी तरह से जान चुका था, पर तुझे सिर्फ यही दांव आता हैं ये बात थोड़ी उसे मालूम थी?”
“अच्छा और दूसरी बात क्या थी गुरूजी?”
“दूसरी ज्यादा महत्व रखती हैं। हर एक दांव का एक प्रतिदाव होता हैं, ऐसा कोई दाव नहीं हैं जिसका तोड़ ना हो। वैसे ही इस दांव का भी एक तोड़ था।”
“तो क्या मेरे प्रतिस्पर्धी को वो दांव मालूम नहीं होगा, ऐसा?”
“वो उसे मालूम था। पर वो कुछ नहीं कर सकता था। जानते हो क्यों? क्योकि उस तोड़ में दांव देने वाले का बायां हाथ पकड़ना पड़ता हैं, जो तुम्हारे पास नहीं हैं।”
अब आपके समझ में आया होगा कि एक बिना हाथ का साधारण लड़का विजेता कैसे बना?
जिस बात को हम अपनी कमजोरी समझते हैं, उसी को जो हमारी शक्ति बना कर जीना सिखाता हैं, विजयी बनाता हैं, वो ही सच्चे अर्थो में “सच्चा गुरूजी” हैं।
हर कोई जिंदगी के हर एक दावं में पारंगत नहीं होता, हर कोई कहीं ना कहीं कमजोर जरुर होते हैं, दिव्यांग होते हैं। उस कमजोरी(Weakness) को मात दे कर जिंदगी जीने की कला सिखाने वाला गुरु ही हमें चाहिए।
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