ईश्वर का अपनी अनोखी और सर्वोत्तम रचना “इंसान” को इस दुनिया में भेजने का परम उद्देश्य मात्र यही तो था कि वह धरती पर कदम रखने के पश्चात उसके प्राकृतिक संविधान और न्याय व्यवस्था को बरकरार रखेगा।
जिन्दगी भर उसके बताए हुए परोपकारी मार्ग पर अडिगता के साथ चलता रहेगा जिसमें मानवों का कल्याण और उनकी असल कामयाबी का राज़ छिपा हुआ है।
याद रहे कि ईश्वरीय संविधान में एकेश्वरवाद के बाद सबसे बड़ा दर्जा मानवता (इन्सानियत) को दिया गया है। अनेक युगों में ईश्वर के द्वारा अपने संदेष्टाओं या पैगंबरों (Prophets) को एक आसमानी किताब भी दी जाती रही जिसे धार्मिक ग्रंथ के रूप में जाना जाता है।
इन ग्रंथों में ईश्वर के वास्तविक उद्देश्य और उसके संविधान पर विस्तार से चर्चा की गई है। उसी ने अपने संदेष्टाओं के द्वारा मानव से मानव को भाईचारे व बंधुत्व में बंध कर रहने और एक दूसरे की सहायता एवं परोपकार करने के आदेश निर्देश जारी किए हैं। लेकिन जिस ईश्वर ने मानवता के संदेश को अपने धार्मिक ग्रंथों के माध्यम से आम किया, उसे ही ताखे पर रखकर कुछ लोग किसी इन्सान से मात्र उसके धर्म, जाति, संप्रदाय, निर्धनता या स्थान के आधार पर हीन भावना से देख कर उनका उत्पीड़न करने लगते हैं।
हर इंसान से प्रेम करें
चाहे आप दुनिया के किसी भी धर्म के पासदार या अनुयायी हों, हर इंसान को मानवता के आधार प्यार और सम्मान दें और किसी एक के साथ भी कभी बेरुखी से पेश ना आएं क्योंकि विश्व का कोई भी धर्म ऐसा नहीं है जो मानवता, सहिष्णुता या परोपकार के खिलाफ एक कदम भी आगे बढ़ाने की वकालत करता हो।
तो अब जो शख्स भी अपनी मन मर्जी से किसी इंसान को मानसिक, आर्थिक या सामाजिक क्षति पहुंचाएगा, वह स्वयं अपने ही धर्म की अवहेलना या खिलाफवर्जी करेगा। क्योंकि धर्म कभी किसी इंसान को तकलीफ या दुख देने की बात कभी नहीं करता।
सिर्फ इंसानों पर ही नहीं बल्कि धर्म तो अपने अनुयायियों से पशुओं और वनस्पतियों तक से प्रेम करने की अपील करता रहा है। जब इंसान किसी इंसान से उसके गलत आचरण और व्यवहार पर नफरत करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि वह स्वयं अपने धार्मिक ग्रंथों की अवहेलना कर रहा है क्योंकि दुनिया का कोई भी धार्मिक ग्रंथ लोगों से नफरत की इजाजत नहीं देता चाहे वह कितने ही गुनाहगार क्यों ना हों!
हमें ईश्वर ने इस बात की नसीहत की है की हमें हर इंसान से मानवता के आधार पर प्रेम, सदाचार और नर्मी से पेश आना चाहिए। अगर इसके बावजूद भी कोई शख्स दुनिया के किसी भी इंसान से अगर धार्मिक बुनियाद पर द्वेष या नफरत रखता है इसका अर्थ यह है कि उसे खुद अपने ही धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं है क्योंकि दुनिया के हर धार्मिक ग्रंथ तो इंसानों में आपसी भाईचारे, प्रेम मोहब्बत, सौहार्द और सहिष्णुता को बरकरार रखने की ही दावत देते रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि हम किसी धर्म के अनुयायी की गलती और गुनाह को देखकर उसके धर्म को गलत करार नहीं दे सकते क्योंकि यह संभव है कि उस शख्स को अपने धर्म का संपूर्ण ज्ञान ना हो और इसी ज्ञान के अभाव में वह गलतियां कर रहा हो जबकि उसके धर्म ने उसे सकारात्मक और मानवीय मूल्यों की रक्षा करने का संदेश दिया था।
तो यहां यह बात जाहिर हो गई कि दुनिया में जो कोई भी कोई गलत काम करता है, अज्ञानता और बहकावे के कारण ही करता है और धर्म का उसकी गलती से कोई लेनादेना नहीं है।
दूसरी ओर, प्रेम की परिभाषा को लफ्जों में परिभाषित कर पाना बेहद मुश्किल और दुश्वार है। वास्तव में, यह एक अलग किस्म का अजीबोगरीब और सुकून देने वाला कुछ ऐसा अनोखा एहसास है जो लोगों को एक दूसरे से एकता व अखंडता के सूत्र में बांधकर रखने के साथ ही सुरक्षा और संप्रभुता के साथ जिंदगी गुजारने की अपील करता है।
प्रेम के सिलसिले में बुद्धिजीवियों का विचार यह है कि इस पूरे ब्रह्माण्ड में सिर्फ इस पृथ्वी पर ही हरियाली और मानवता पनपती है जिस पर हम इंसानों को गौरवान्वित और सौभाग्यशाली महसूस करना चाहिए।
एक दिन आएगा कि मृत्यू हम सभी मनुष्यों का नाश कर देगी इसलिए हमें समय की नज़ाकत को महसूस करते हुए खुद अपने जीवन और सम्मान के साथ दूसरे लोगों के जीवन और अधिकारों से भी समान रूप से प्रेम करना चाहिए। प्रेम वह एहसास है जो इन्सानों को जीवन जीने की प्रेरणा देता और सख्त से सख़्त हालात में भी अनोखे अंदाज़ से उन्हें लड़ते रहने की क्षमता प्रदान करता है।
प्रेम हृदय को नफरत और हिंसा से पाक कर हमें एक दूसरे से जोड़े रखने का मूल आधार है। इसके बिना सफलता के मार्ग पर ज्यादा देर तक किसी का टिके रहना मुमकिन नहीं है क्योंकि इतिहास गवाह है कि इसकी गैरमौजूदगी में हमेशा दुनिया में हिंसा और विध्वंस ने जन्म लेकर समूची मानवता का बेड़ा गर्क किया है।
अगर दो लोगों में मानवता के आधार पर प्रेम हो जाए तो इससे समूचा समाज उनके प्रेममयी आचरण, कुशल व्यवहार और किरदार से प्रभावित होता है जिससे पूरे समाज में बेहतर सोच और मानसिकता के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
मानवतावाद के सबक को रखें याद
मानवता इंसान की सबसे खुबसूरत और आकर्षक खूबी मानी जाती है जो अगर किसी शख्स के भीतर मौजूद हो तो उसकी शख्सियत में चार चांद लगाकर उसे लोगों में लोकप्रिय बना देती है और लोग चाह कर भी उससे दूर रहना पसंद नहीं करते।
अगर आप किसी व्यक्ति से केवल मानवीय मूल्यों के आधार पर मोहब्बत रखते हैं तो इसका मतलब ये हुआ कि आप धर्म के उपदेशों पर चल रहे हैं क्योंकि दुनिया के लगभग सभी धर्मों का एकेश्वरवाद (Monotheism) के बाद सबसे बड़ा सबक यही मानवतावाद ही तो है
जिसके कारण इंसान का दिल निर्मल और मेहरबान हो जाता है और वह दूसरों के कष्ट एवं पीड़ाओं को स्वयं अपना दुखदर्द समझ कर उसे दूर करने की कोशिश करने लगता है।
उसकी यही कोशिश उसे समाज के अन्य कठोर प्रवृत्ति के लोगों से भिन्न बनाती है और वह अपने किरदार के चलते चारों ओर प्रेम की बूंदें छींट कर धरती पर प्रेम की फसल की पैदावार को और अधिक बढ़ा देता है।
एक धर्म विशेष के मानने वाले शख्स में एक अकेले ईश्वर की परम उपासना के गुण मौजूद रहते हैं जिसके चलते ईश्वर की ब्रह्मांडीय सत्ता एवं शासन में उसे मुकम्मल यकीन होता है और उसे इस बात का डर सताता रहता है कि मरणोपरांत (मरने के बाद) उसे खुदा की अदालत में अपने कर कमलों की जवाबदेही करनी है।
वह जानता है कि मानवतावाद ईश्वर के आदेशों में से एक महत्त्वपूर्ण आदेश है जिसकी अवहेलना करने की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसी आधार पर वह खुदा की मखलूक (Creatures) के साथ विनम्रता और नरमी का बरताव करता है।
ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाला यह भी जानता है कि उसकी इजाजत के बिना एक पत्ता भी अपनी जगह से टस से मस नहीं हो सकता।
वह जिसे चाहता है सत्ता एवं शासन के आसन पर बिठाकर सम्मान और प्रतिष्ठा से नवाज़ देता है और जिसे चाहता है सत्ता एवं शासन या संपत्ति के सुख से महरूम कर देता है।
इन्सान के गुनाह उसके जीवन में आने वाली आपत्तियों और रुकावटों का सबब बनते हैं। मानव का मानव से भेदभाव सबसे बडे़ गुनाहों में से एक शुमार किया जाता है क्योंकि नफरत या हिंसा सीधे तौर पर ईश्वरीय संविधान में लिखे हुए आदेशों की अवहेलना (Disobedience) है।
धर्म बड़ी या इंसानियत?
बहुत से लोग ये सवाल करते हैं कि धर्म बड़ा है या इन्सानियत? तो इसका स्पष्ट उत्तर भी एक सवाल ही है। वह सवाल ये है कि इंसान का इंसान से रिश्ता पहले है या इंसान के बनाने वाले (ईश्वर) से रिश्ता पहले है?
जाहिर है कि इंसान के बनाने वाले से रिश्ता गाढ़ा ही होगा। इसे एक मिसाल से समझिए! मान लीजिए कि किसी कारणवश आपके पिता और भाई के रिश्तों के बीच खार पैदा हो गई तो स्वाभाविक तौर पर आपका खिंचाव आपके पिता की ओर ही अधिक होगा क्योंकि पिता ही आपको आसमान से जमीन पर लाने वाली शख्सियत है।
अब जिस ईश्वर ने सभी इंसानों को पैदा किया, उससे बढ़कर कोई इंसान किसी और चीज़ को महत्त्व देकर उसके आदेशों की अवहेलना करे तो यह सरासर उसकी गलती है।
जबकि ईश्वर ने इंसानों को पैदा करने के बाद अपने संदेष्टाओं के द्वारा उस तक अपना यह परोपकारी संदेश पहुंचा दिया था कि वह सदैव धरती पर न्याय की स्थापना के लिए जद्दोजहद और संघर्ष करता रहे और किसी भी हाल में मानवीय मूल्यों को कुचल कर महज अपने स्वार्थ को सिद्ध न करे बल्कि इन्सानियत की बुनियाद पर एक दूसरे से प्रेम, व्यवहार और सदाचार का प्रमाण पेश करने की कोशिश करता रहे।
धर्म का जुड़ाव उसी परमेश्वर से है इसलिए ये सवाल ही बेतुका और बेमानी लगता है जिसमें धर्म और इन्सानियत को अलग अलग दर्शाया जा रहा है क्योंकि धर्म के उपदेश को हाथों में लिए बगैर इंसान का अपनी इंसानियत का सबूत पेश कर पाना बेहद कठिन और दुश्वार है। सार ये कि जिसके भीतर इंसानियत नहीं है, उसके भीतर धर्म नहीं है।
इसलिए कहा जाता है कि इंसानियत को नीचे रखकर धर्म को ऊपर उठाने वाले लोगों का प्रयास कभी सार्थक और सफल नहीं हो पाता क्योंकि धर्म और इंसानियत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जो एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं।
अगर इंसानियत को छोड़कर केवल धर्म को देखा जाने लगे तो यह व्यक्ति की त्रुटि और कमी है, किसी धर्म की नहीं क्योंकि धर्म तो इंसानों को इंसानियत और आपसी प्रेम एवं सद्भाव का सबक सिखाता चला आ रहा है।