इतिहास में कुछ ऐसे महापुरुष पैदा हुए जिन्होंने देश के सामाजिक कल्याण एवं उत्थान हेतु अति महत्वपूर्ण कार्य किए। ऐसे ही महान लोगों में राजा राममोहन राय का नाम भी शामिल है, जिन्होंने अपना जीवन लोगों को जागरूक करने, समाज में महिलाओं की स्थिति को बेहतर बनाने और जन सेवा में समर्पित किया।
इसीलिए जब जब इतिहास में कुछ आदर्श पुरुषों का नाम लिया जाता हैं, राजा राममोहन राय का नाम सदैव ही इस सूची में शामिल रहेगा।
कौन थे यह राजा राममोहन राय? आज की नई पीढ़ी को उनसे काफी ज्यादा सीखने की आवश्यकता है। आज हम इस लेख के माध्यम से राजाराम मोहन जी की बायोग्राफी में हम उनसे जुड़ी कई खास बातें आपको बताएंगे।
नाम | राजा राममोहन राय |
जन्म दिन | 22 मई 1772 |
जन्म स्थान | बंगाल |
पिता | रामकंतो रॉय |
माता | तैरिनी |
पेशा | ईस्ट इंडिया कम्पनी में काम, जमीदारी |
प्रसिद्धि | सती प्रथा,बाल विवाह, बहु विवाह का विरोध |
पत्रिकाएं | ब्रह्मोनिकल पत्रिका, संबाद कौमुडियान्द मिरत-उल-अकबर |
उपलब्धि | सती प्रथा पर कानूनी रोक(1829) |
विवाद | हिंदू धर्म में मौजूद बुराइयों के विरोधी रहे |
मृत्यु | 27 सितम्बर 1833 |
मृत्यु का कारण | मेनिन्जाईटिस |
राजा राममोहन राय जन्म और फैमिली
राधा नगर गांव, जो कि देश के बंगाल राज्य के हुगली जिले में पड़ता है, वहां पर साल 1772 में 12 मई को भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारक राजा राममोहन राय का जन्म हुआ था। समाज सुधारक राजा राममोहन राय की माता जी का नाम तैरिनी था और इनके पिता का नाम रामकंतो था। राजा राममोहन राय जिस परिवार में पैदा हुए थे वह वैष्णव संप्रदाय को मानता था।
राजा राममोहन राय विवाह
पहले के समय में भारत में बाल विवाह का चलन काफी था। इसीलिए राजा राममोहन राय की शादी सिर्फ 9 साल की उम्र में ही कर दी गई थी परंतु उनकी पहली पत्नी की मौत शादी के 1 साल के बाद ही हो गई, जिसके बाद 10 साल की उम्र में फिर से राजा राममोहन राय की दूसरी शादी करवाई गई।
दूसरी पत्नी से राजा राममोहन राय के 2 पुत्र पैदा हुए, इसके बाद साल 1826 में राजा राममोहन राय की दूसरी पत्नी की भी मौत हो गई। इसके बाद राजा राममोहन राय ने तीसरी शादी की परंतु उनकी तीसरी पत्नी भी अधिक दिनों तक जिंदा नहीं रह पाई और उसकी भी मौत हो गई।
राजा राममोहन राय की शिक्षा
सिर्फ 15 साल की उम्र में ही राजा राममोहन राय ने अरेबिक, पर्शियन, बंगला और संस्कृत जैसी भाषाओं की शिक्षा हासिल कर ली थी तथा अन्य भाषाएं भली-भांति सीख ली थी।
प्रारंभिक शिक्षा राजा राममोहन राय ने बंगाली और संस्कृत भाषा में अपने गांव से ही पूरी की थी। आगे की पढ़ाई करने के लिए वे बिहार राज्य के पटना में स्थित एक मदरसे में चले गए, जहां पर उन्होंने पर्शियन और अरेबिक लैंग्वेज को सिखा।
जब राजा राममोहन राय सिर्फ 22 साल के थे, तब इन्होंने अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया उसके बाद वह संस्कृत भाषा को सीखने के लिए उत्तर प्रदेश राज्य के काशी शहर में चले गए, जहां पर जाकर उन्होंने उपनिषद और वेद की गहराई से स्टडी की।
इसके साथ ही उन्होंने इस्लाम मजहब के कुरान और ईसाई मजहब के बाइबिल ग्रंथ का भी अध्ययन किया।
राजा राममोहन प्रारम्भिक विद्रोही जीवन
राजा राममोहन राय के पिता वैष्णव ब्राह्मण धर्म को मानते थे और वह काफी कट्टर थे, परंतु फिर भी राजा राममोहन राय ने हिंदू रिलीजन में फैली हुई कुरीतियां और अंधविश्वास का डटकर सामना किया और इन कुरीतियों का पुरजोर विरोध किया।
जब राजा राममोहन राय 14 साल के थे, तब इन्होंने संन्यास लेने की इच्छा अपनी मां से कहीं,परंतु इनकी मां ने इस बात को नहीं माना।
राजा राममोहन राय अक्सर हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों का विरोध करते थे, जिसके कारण इनकी अपने पिता से नहीं बनती थी और दोनों के बीच हमेशा मतभेद रहता था, जिसके कारण कभी-कभी उनके बीच झगड़े भी हो जाते थे और इसीलिए राजा राममोहन राय ने एक दिन अपना घर छोड़ दिया और वह हिमालय की तरफ चले गए।
हिमालय मे कुछ समय व्यतीत करने के बाद घर लौटते समय इन्होंने अलग-अलग जगह पर भ्रमण किया, जिससे इन्हें धर्म को और करीब से जानने का मौका मिला।
जब राजा राममोहन राय के घर वालों ने उनकी शादी करवाई, तब उनके घर वालों को यह लगा था कि शायद राजा राममोहन राय का विचार शादी होने के बाद बदल जाए, परंतु शादी होने के बाद भी राजा राममोहन राय के विचारों में कोई भी बदलाव नहीं आया।
शादी होने के बाद भी राजा राममोहन राय वाराणसी चले गए और वाराणसी जाकर उन्होंने हिंदू दर्शनशास्त्र और उपनिषद की स्टडी की,परंतु जब साल 1803 में इनके पिता का देहांत हो गया, तो यह वापस अपने घर चले आए।
राजा राममोहन राय का करियर
वर्ष 1805 में पश्चिमी संस्कृति और साहित्य से राजा राममोहन राय का परिचय ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जॉन दीगबॉय ने करवाया। जिसके बाद अगले 10 सालों तक राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश अधिकारी के असिस्टेंट के तौर पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में वर्क किया, वहीं साल 1809 से लेकर साल 1814 तक राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के रेवेन्यू डिपार्टमेंट में कार्य किया।
राजा राममोहन राय द्वारा लिखित किताबें
परिसियन, बंगाली, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में कई मैगज़ीन पब्लिश करने का काम राजा राममोहन राय ने किया था।इन्होंने साल 1815 में ब्रह्म समाज की स्थापना की थी, परंतु यह ज्यादा समय तक नहीं चल पाया।
राजा राममोहन राय को हिंदू धर्म के साथ-साथ क्रिश्चियनिटी में भी काफी इंटरेस्ट था।
वर्ष 1820 में राजा राममोहन राय ने एथिकल टीचिंग ऑफ़ क्राइस्ट को पब्लिश किया, जो 4 गोस्पेल का एक भाग था। इस किताब को उन्होंने प्रिसेप्ट्स ऑफ जीसस के टाइटल के साथ पब्लिस करवाया था।
वर्ष 1816 में राजा राममोहन राय ने इशोउपनिषद, साल 1817 में कठोपनिषद, साल 1819 में राजा राममोहन राय ने मुंडक उपनिषद लिखा था। इसके बाद राजा राममोहन राय ने “गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस लिखा”।
इसके बाद साल 1821 में राजा राममोहन राय ने बंगाली न्यूज़पेपर सम्बाद कुमुदी में भी अपना लेख लिखा था। साल 1822 में राजा राममोहन राय ने मीरत उल अकबर नाम की पर्शियन जनरल में भी अपने लेख लिखे थे।
उसके बाद 1826 में राजा राममोहन राय ने गौडियां व्याकरण, फिर 1828 में राजा राममोहन राय ने ब्राह्मापोसना और साल 1829 में राजा राममोहन राय ने ब्रहामसंगीत और साल 1829 में राजा राममोहन राय ने यूनिवर्सल रिलिजन लिखा था।
राजा राममोहन की वैचारिक क्रान्ति का सफर
राजा राममोहन राय ने हिंदू धर्म और हिंदू धर्म में शामिल अलग-अलग मतों में मौजूद अंधविश्वास पर अपने विचार वर्ष 1803 में प्रकट किए।
राजा राममोहन राय ने यह कहा था कि सृष्टि का निर्माता एक ही भगवान है और अपनी इस बात को उन्होंने वेद और उपनिषद के द्वारा समझाते हुए अपने विचारों को हिंदी भाषा, अंग्रेजी भाषा और बंगाली भाषा में ट्रांसलेट किया।
फिर साल 1814 में राजा राममोहन राय ने आत्मीय सभा की स्थापना की थी, जिसका मकसद समाज में सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर फिर से विचार करके उसमें परिवर्तन लाना था।
भारत की महिलाओं के अधिकारों के लिए राजा राममोहन राय ने अलग-अलग प्रकार की मुहिम भी चलाई थी, जिसमें विधवा विवाह और महिलाओं को उनकी भूमि से संबंधित हक दिलाना उनके मुख्य उद्देश्य था।
जब राजा राममोहन राय की बहन के पति की मृत्यु हो गई, तो उनकी बहन भी उनकी चिता के साथ सती हो गई, जिसके कारण राजा राममोहन राय को काफी दुख पहुंचा था और इसीलिए राजा राममोहन राय ने तभी से उन्होंने सती प्रथा का पुरजोर विरोध किया।
इसके अलावा राजा राममोहन राय बहुविवाह और बाल विवाह के भी सख्त खिलाफ थे और इसका भी वह विरोध करते थे।
राजा राममोहन राय भारत की महिलाओं को शिक्षित करने के लिए पक्षधर थे। राजा राममोहन राय ने सरकारी स्कूल को संस्कृत भाषा के लिए जो सरकारी फंड मिलता था, उसका भी पुरजोर विरोध किया। वर्ष 1822 में उन्होंने एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल की भी स्थापना की।
वर्ष 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज की भी स्थापना की। जिसके पीछे राजा राममोहन का प्रमुख उद्देश्य धार्मिक ढोंग और समाज में क्रिश्चियनिटी के बढ़ते हुए प्रभाव को देखना और समझना था।
अपने इसी प्रयासों के फलस्वरूप साल 1829 में अंग्रेजी गवर्नमेंट ने सती प्रथा पर पूरी तरह से रोक लगा दी। इस प्रकार राजा राममोहन राय सती प्रथा पर रोक लगाने में कामयाब हुए।
राजा राममोहन राय का शैक्षणिक योगदान
जब राजा राममोहन राय ने अंग्रेजी माध्यम स्कूल की स्थापना की, तो इसके साथ ही उन्होंने बंगाल राज्य के कोलकाता शहर में हिंदू कॉलेज की भी स्थापना की, जो आगे चलकर देश का सबसे बढ़िया एजुकेशनल इंस्टीट्यूट बन गया।
राजा राममोहन राय ने अपने स्कूल में विद्यार्थियों को विशेष तौर पर साइंस के सब्जेक्ट जैसे की केमिस्ट्री, फिजिक्स और वनस्पति शास्त्र को पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
राजा राममोहन राय चाहते थे कि देश के युवा भी नई टेक्नोलॉजी की जानकारियां प्राप्त करें और इसके लिए उन्हें अंग्रेजी माध्यम स्कूल में पढ़ाना जरूरी है।
एजुकेशन के क्षेत्र में कार्य करने के लिए साल 1815 में राजा राममोहन राय कोलकाता चले गए। क्योंकि राजा राममोहन राय का मानना था कि अगर विद्यार्थी जियोग्राफी, गणित और लैटिन भाषा नहीं पड़ेंगे तो वह एजुकेशन में पीछे रह जाएंगे।
राजा राममोहन राय के इस प्रस्ताव को ब्रिटिश गवर्नमेंट ने स्वीकार कर लिया, परंतु अंग्रेज गवर्नमेंट राजा राममोहन राय की मौत होने तक इस प्रपोजल को लागू नहीं कर सकी।
राजा राम मोहन राय की मृत्यु
सन 1833 में ब्रिस्टल के पास स्टाप्लेटोन में मस्तिष्क ज्वर (मेनिनजाईटिस) के कारण राजा राममोहन राय की मृत्यु 27 सितंबर को हो गई।
राजा राममोहन राय को प्राप्त पुरस्कार
साल 1829 में राजा राम मोहन राय को राजा अकबर द्वितीय ने “राजा” की उपाधि दी थी।
राजा राममोहन राय को वेद और उपनिषद को संस्कृत से हिंदी भाषा, संस्कृत से अंग्रेजी भाषा और संस्कृत से बंगाली भाषा में ट्रांसलेट करने के बदले में उन्हें 1824 में Société Asiatique के द्वारा सम्मानित किया गया।